नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर जिला मुख्यालय छिंदवाड़ा से 28 किलोमीटर दूर, ग्राम लिंगा व उभेगांव से आगे, विकासखंड चौरई के ग्राम नीलकंठी कला में एक अति प्राचीन कलात्मक मंदिर स्थित है।
नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर अथवा गोदड़ देव मंदिर के नाम से जाना जाता है। यहां नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर (गोदड़ देव) मंदिर के अलावा तीन अन्य मंदिरों के बिखरे भग्नावशेष भी क्षेत्र की प्राचीन महत्ता को इंगित करते हैं।
नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर परिसर क्षेत्र में स्थित एक शिलालेख, जो अब अस्पष्ट है, जिसमें 10वीं शताब्दी के राष्ट्रकूट राजा कृष्णा तृतीय का उल्लेख है।
लगभग ढाई सौ मीटर की दूरी पर एक और मंदिर "सास बहू शिव मंदिर" के कलात्मक भग्नावशेष तिफना नदी के किनारे बिखरे पड़े हैं। यहां भी एक खंडित शिलालेख में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय का उल्लेख मिलता है।
आखिर कौन थे यह राष्ट्रकूट राजा जिन्होंने इन कलात्मक मंदिरों का निर्माण करवाया ??
कौन थे राष्ट्रकूट ??
राष्ट्रकूट पहले बादामी के चालुक्य के अधीन सामंत थे। परंतु सन् 736 ईसवी में दंतिदुर्ग ने राष्ट्रकूटों की स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।
राष्ट्रकूटों ने सन् 736 ईसवी से सन् 973 ईसवी तक अर्थात 237 वर्षों तक दक्षिण भारत तथा उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में एवं मालवा में राज्य किया। इनका राज्य गंगा एवं जमुना के दोआब से दक्षिण में रामेश्वरम, कन्याकुमारी तक था।
यह दक्षिण भारत का प्रमुख राजवंश था। इनकी राजधानी कर्नाटक में मान्यखेट (वर्तमान मालखेड़, जिला गुलबर्ग) थी।
इनकी शासन प्रणाली सुव्यवस्थित थी। दंतिदुर्ग के पश्चात कृष्ण प्रथम ने राज्य का विस्तार किया। कृष्ण प्रथम ने ही एलोरा का विश्व प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण करवाया था।
कैलाश मंदिर 276 फीट लंबा, 154 फीट चौड़ा एवं 50 फीट ऊंचा सिर्फ एक ही विशालकाय चट्टान को काटकर, मंदिर निर्माण, ऊपर से नीचे की ओर, तरासते हुए, अद्भुत एवं कलात्मक तरीके से, बिना किसी जोड़ के किया गया है। एलोरा का कैलाश मंदिर, विश्व के अद्भुत एवं महान आश्चर्यों में से एक है।
राष्ट्रकूट वंश के राजा ध्रुव, गोविंद तृतीय, इन्द्र तृतीय एवं कृष्ण तृतीय अपने समय के महानतम विजेता थे। इन प्रतापी शासकों ने पूरे भारतवर्ष में अपनी विजय पताका फहराई।
इन्होंने अपने काल में उत्तर के गुर्जर प्रतिहार एवं पाल राजाओं को हराकर एवं उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक अपनी सत्ता स्थापित की। इन्होंने अपनी राजधानी मान्यखेट में स्थापित की।
राष्ट्रकूट राजा हिंदू धर्म के अनुयाया थे, तो कुछ जैन धर्म को भी मानते थे। इनकी भाषा कन्नड़ थी। स्थापत्य कला के साथ-साथ इन्होंने कन्नड़ एवं संस्कृत साहित्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।
राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय :
राजा कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट राजवंश का सबसे प्रतापी शासक था। यह अमोघ वर्ष तृतीय (सन् 934 ईसवी से सन् 939 ईसवी तक) का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।
कृष्ण तृतीय ने सन् 939 ईसवी से सन् 967 ईसवी तक राज्य किया। राज्यारोहण के समय कृष्ण तृतीय ने अकाल वर्ष की उपाधि धारण की।
कृष्णा तृतीय ने उत्तर भारत के गुर्जर, प्रतिहारों से कालिंजर और चित्रकूट को जीत लिया। उसने मालवा पर भी अधिकार कर लिया। दक्षिण भारत में भी चोलों को परास्त कर कांची एवं तंजावुर को जीता। इसके पश्चात रामेश्वरम को जीता। वहां एक विजय स्तंभ और कृष्णेश्वर एवं गंड मार्तंडादित्य मंदिर का निर्माण करवाया।
चोल, पांडय और केरल की विजयों के कारण उसका साम्राज्य कन्याकुमारी तक विस्तृत हो गया। कृष्ण तृतीय ने उत्तर से दक्षिण भारत तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर राष्ट्रकूटों के गौरव को एक बार फिर स्थापित किया। वह राष्ट्रकूट वंश का महानतम शासक था। उसने मंदिरों के निर्माण के साथ-साथ कोल्हापुर, कर्नाटक, रामेश्वरम, नीलकंठीकला आदि कई जगहों पर शिलालेख भी लिखवाए।
वर्धा जिले के ग्राम देवली में राजा कृष्ण तृतीय के सन 940 ईसवी के राज्य काल का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। ताम्रपत्र लेख के अनुसार नंदिवर्धन (वर्तमान नगरधन, रामटेक के पास) जिले के तालपुरुशक ग्राम किसी कन्नड़ ब्राह्मण को दान में दिया गया था।
इस ग्राम के दक्षिण में कन्हाना (कन्हान नदी), पश्चिम में मोहमग्राम (वर्तमान मोहगांव) और उत्तर में बधरी (वर्तमान बेरडी) ग्राम बतलाए गए हैं। स्पष्ट है कि छिंदवाड़ा जिले का दक्षिणी भाग राष्ट्रकूट राज्य के अंतर्गत प्राचीन नंदिवर्धन (नगरधन जिला नागपुर) में शामिल था।
नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर के शिलाखंड तथा क्षेत्र में स्थित अन्य शिव मंदिरों के अवशेष शिला खंडों को अनेक ग्रामवासी ले गए। संभव है यहां की मूर्तियां देवगढ़ आदि जगह भी ले जाई गई होंगी। यहां के शिलाखंडों का उपयोग छिंदवाड़ा में सन् 1867 ईस्वी में बनवाए गए अर्शबर्नर तालाब (वर्तमान में छोटा तालाब) में भी लगाए गए। वर्तमान में स्थानीय ग्रामीणों द्वारा यहां नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर के मुख्य मंदिर के चारों ओर चबूतरा व दीवार द्वारा सुरक्षित करवा दिया गया है।
नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर की मान्यता गोदड़देव मंदिर के रूप में प्रचलित है। यहां विगत लगभग 40 वर्षों से मकर संक्रांति 14 जनवरी से 15 दिवसीय मेला प्रतिवर्ष लगता है। जो गोदड़देव मेला के रूप में विख्यात है।
नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर के द्वार के समक्ष दो स्तंभ अत्यंत कलाकृति पूर्ण हैं। मंदिर द्वार निर्माण में भी नीचे एवं ऊपर कलात्मक मूर्तियां उत्कीर्ण की गई हैं। लगभग 8 सीढ़ियां नीचे उतरने के बाद गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर भूमित्र शैली का है।
भू विन्यास में गर्भगृह, अंतराल एवं मंडप है। मंदिर का जंघा तक का पृष्ठ भाग अपने मूल स्वरूप में है। गर्भ गृह भूतलीय है, जिसमें शिवलिंग स्थापित है, जहां तक जाने के लिए सोपान है। श्री स्वरूप सिंह चौरिया के खेत में मिले शिवलिंग को मंदिर में प्रति्ष्ठापित किया गया है। अंतराल की रचनाओं में गौरी एवं भैरव की प्रतिमाएं हैं। द्वार शाखा पर सप्त मातृकाएँ अत्यंत कलात्मक ढंग से उत्तीर्ण हैं।
गर्भ गृह एवं मंडप के ध्वस्त होने पर स्थानीय लोगों द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया। मंदिर परिसर में मंदिर स्तंभ दृष्टव्य है। एक स्तंभ पर देवनागरी में संस्कृत भाषा का अस्पष्ट लेख है।
नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर (गोदड़देव मंदिर) से आगे चांद मार्ग पर, लगभग 250 मीटर की दूरी पर, तिफना नदी के किनारे दाहिनी ओर, एक और शिव मंदिर के भग्नावशेष दृष्टिगत होते हैं। यहां एक सिरविहीन मूर्ति एक पैर पर खड़ी तथा एक पैर स्त्री मूर्ति पर रखी हुई है। जो संभवतः यक्षिणी की मूर्ति है। ग्रामीणों में यह सास बहू की मूर्ति के नाम से प्रचलित है।
यहां भी एक अस्पष्ट भग्न शिलालेख मिला। जिसमें राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय का उल्लेख किया गया है। यह भी एक शिव मंदिर था। भूमित्र शैली के मंदिर के गर्भ गृह के सामने एक खंडित नंदी की छोटी मूर्ति अभी भी विद्यमान है। मंदिर भग्नावशेष के बड़े-बड़े शिलाखंड मंदिर के चारों ओर खेत में बिखरे पड़े हैं।
ग्राम नीलकंठी कला के अत्यंत समीप, वर्तमान गौशाला के पास, पहाड़ी पर एक और शिव मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। भूमित्र शैली में बने इस शिव मंदिर में लगभग 10 सीढ़ियां नीचे उतरने पर, गर्भगृह में शिवलिंग स्थित है। मंदिर के समीप भगवान नरसिंह के चेहरे की आकृति वाला पाषाण खंड रखा हुआ है। इसीलिये इसे दैय्यत बाबा मंदिर कहते हैं।
दैय्यत बाबा मंदिर द्वार के समक्ष अत्यंत सुंदर नंदी की विशाल पाषाण प्रतिमा, नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर (गोदड़देव मंदिर) जैसे ही मूर्ति विराजमान है। यहां मंदिर के आसपास भगवान गणेश, विष्णु, काली की मुंड मालिनी खंडित प्रतिमा आदि मूर्तियों के अंश रखे हुए हैं।
दैय्यत बाबा मंदिर परिसर गेट पर दो सीमेंट के सिंह ग्रामीणों द्वारा रखे गए हैं। इन सिंह के नीचे भी आकर्षक कलाकृति व नक्काशीदार, प्राचीन मंदिर के पाषाण खंड रख दिए गए हैं। दैय्यत बाबा मंदिर भी राष्ट्रकूट कालीन है।
गौशाला एवं नरसिंह शिव मंदिर (दैय्यत बाबा मंदिर) के बीच से, आगे पहाड़ी के ढलान पर, लगभग आधा किलोमीटर दूरी पर, एक अन्य शिव मंदिर के अवशेष स्थित हैं। यहां ग्रामीणों द्वारा जन सहयोग से, ईट सीमेंट का एक छोटा मंदिर निर्माण करवा रहे हैं। यहां भी एक शिवलिंग मौजूद है एवं पानी का प्राकृतिक स्त्रोत बना हुआ है। वर्तमान मंदिर निर्माण के ठीक पीछे नींव के पास पहाड़ी में, पत्थर के विशाल शिलाखंड दबे हुए दृष्टिगोचर होते हैं।
ग्रामीणों में प्रचलित जनश्रुति अनुसार यहां भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग हैं। चौरागढ़ नहर खुदाई के पास एक शिवलिंग मिला, सास बहू शिव मंदिर अवशेष के आगे, नाले के किनारे महुआ पेड़ के पास श्री उमेंद्र पटेल के खेत में भी एक शिवलिंग मिला।
शिव मंदिरों के समूह मिलने से इस स्थान की प्राचीनता के साथ-साथ यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि यह स्थान रामगिरि (वर्तमान रामटेक) व नंदी वर्धन (वर्तमान नगर धन) से चांद, सिवनी, छपारा मार्ग का एक महत्वपूर्ण विश्राम या पड़ाव स्थल रहा होगा। एक संभावना यह भी बनती है कि यह गोरखनाथ संप्रदाय के नागा साधुओं का तांत्रिक केंद्र स्थल भी रहा हो।
म.प्र. शासन के पुरातत्व अभिलेख एवं संग्रहालय विभाग का सूचना फलक नीलकंठेश्वर महादेव मंदिर (गोदड़देव मंदिर) में लगा हुआ है। सूचना फलक मैं उल्लेखित अनुसार विदर्भ के देवगिरी (वर्तमान दौलताबाद) के राजाओं ने इस क्षेत्र में राज्य किया है। जो त्रिपुरी कलचुरी राजाओं के समकालीन थे।
यादव राजा महादेव (मृत्यु सन 1241 ईस्वी) एवं रामचंद्र के मंत्री हिमाद्री ने विदर्भ राज्य में कई स्थानों पर अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। जो हिमादपंथी (हेमाडपंथी) शैली के नाम से जाने जाते हैं। कलचुरियों के समकालीन एवं राज्य सीमा से लगे होने के कारण इस मंदिर का वास्तुशिल्प लगभग कलचुरि स्थापत्य से मिलता है। इसका निर्माण लगभग 13वीं सदी ईसवी में रहा है।
** हमारे दृष्टिकोण से नीलकंठी कला ग्राम के मंदिर समूहों का निर्माण राष्ट्रकूट राजाओं के शासनकाल में ही हुआ होगा। जैसा कि राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के शिलालेख इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं।**
पिछले 30 वर्षो से यहां गोदड़देव मेला, नीलकंठी कला, छिंदवाडा, मध्यप्रदेश (GodhadDev Mela, Neelkanthi Kala, Chhindwara, Madhya Pradesh) का आयोजन किया जा रहा है। जो मकर-संक्रांति से 15 दिवस के लिए लगता है।
1 टिप्पणियाँ
जय श्री नीलकांठेश्वर महादेव की जय बाबा गोदारदेव
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