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पन्हालगढ़/पाचालगढ़ किला | राजा जाटवाशाह के पूर्वजों का गढ़ किला | गोंड़ जाति का 1000 वर्ष से अधिक पुराना गढ़ | PanhalGarh Fort, Chhindwara, Madhya Pradesh

श्री आर.बी.रसैल ICS द्वारा संपादित जिला गजेटियर छिंदवाड़ा में उल्लेख मिलता है कि देवगढ़ किले के राजगोंड अपनी उत्पत्ति विष्णु से मानते थे। विष्णु के बाद 44वीं पीढ़ी में महाभारत में वर्णित राजा कर्ण पचमढ़ी के निकट पन्हालगढ़( पनारा, वि.खंं. जुन्नारदेव जिला छिंंदवाडा)  पहुंचे व यहां की राज कन्या से विवाह उपरांत उन्हें भूर देव नामक एक पुत्र-रत्न हुआ। 

कर्ण पुत्र भूरदेव से 35वीं पीढ़ी में शरभशाह  हुआ। जिसने हथियागढ़ / हरियागढ़ के गौली राजाओं को मारकर हरियागढ़ किला अपने आधीन कर लिया। इसकी पांच पीढ़ी बाद वीरभान शाह से हथियागढ़ को गोली सरदारों ने अपने आधीन कर लिया। 

70 वर्ष बाद वीरभान शाह के पौत्र जाटवा शाह ने रनसूर व घनसूर गौली सरदारों को मारकर हरियागढ़ किला अपने अधीनस्थ कर लिया। यह घटना सन् 1570 ईस्वी के करीब की है।

ऐसा ही सामान्यतः विवरण प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ सुरेश मिश्र द्वारा लिखित "देवगढ़ का गोंड़ राज्य" पुस्तक में किया गया है। विष्णु की 44वीं पीढ़ी और कर्ण की 35 वीं पीढ़ी के कथन में सच्चाई हो या ना हो। परंतु यह सत्य है कि राजा जाटवा शाह के पूर्वजों का मूल स्थान/गढ़ पन्हालगढ़ ही था। 

जिसे गोंड़ी गाथाओं में पाचालगढ़ के नाम से वर्णित किया गया है। जो पचमढ़ी की उपत्यकाओंं के समीप स्थित था तथा जहां पन्हालगढ़ / पाचालगढ़ से ये शंभू शेक अर्थात बड़ा देव-महादेव याने भगवान शिव की पूजा करने पचमढ़ी में मठ मंदिर में जाते थे। 

जो वर्तमान में महाशिवरात्रि के समय - महादेव मेला / महादेव यात्रा के रूप में आज भी जारी है। पन्हालगढ़ से हरियागढ़ तथा हरियागढ़ से राजधानी देवगढ़ जाने तथा देवगढ़ से राजधानी नागपुर हो जाने के पश्चात भी - बड़ा देव महादेव अर्थात भगवान शिव की, महाशिवरात्रि के अवसर पर पूजन की परंपरा जारी रही है।

पचमढ़ी के मठ मंदिर में पूजन करने की परंपरा, जो आज विशाल महादेव मेले - यात्रा के रूप में पहचानी जाती है। और आज भी जारी है।

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राजा जाटवा शाह का शासनकाल सन् 1570 ईस्वी से सन् 1620 ईसवी तक माना गया है।  इसके पूर्व हरियागढ़ पर लगभग 70 वर्ष गौली सरदारों की सत्ता रही। अर्थात सन् 1500 ईसवी में किसी गौली सरदार ने जाटवा शाह के पूर्वज वीरभान शाह को हरियागढ़ की सत्ता से अपदस्थ किया था। 

वीरभान शाह से पांच पीढ़ी पूर्व हरियागढ़ पर गोंडों की सत्ता रही अर्थात लगभग 200 वर्ष तक गोंडों का शासन हरियागढ़ पर सन् 1309 ईस्वी से सन् 1500 ईसवी तक शासन था। 

इसके पूर्व यहां गौली/यादवों की सत्ता रही। इसी समय राजा जाटवा शाह के पूर्वज शरभशाह ने, जो तत्समय पन्हालगढ़ पर काबिज था, पन्हालगढ़ से हरियागढ़ पर आक्रमण कर गौली सरदारों से हरियागढ़ की सत्ता हथिया लिया।

सन् 1309 ई. के पूर्व इस क्षेत्र (हरियागढ़) पर देवगिरि (वर्तमान दौलताबाद, महाराष्ट्र) के यादव शासकों का राज्य इस क्षेत्र पर था। और इनके गौली/यादव सामंत यहां हरियागढ़ पर काबिज रहे।

तब शरभशाह तथा इनके पूर्वज पन्हालगढ़ पर अपनी हुकूमत चला रहे थे। संभवतः इनके प्रथम पूर्वज भूरदेव या भुवरराव से इनकी सत्ता कई पीढिय़ों पूर्व पन्हालगढ़ से प्रारंभ हुई। तब पन्हालगढ़ को पाचालगढ़ कहा जाता रहा। जो कालांतर में पन्हालगढ़ हो गया।
         
जिस प्रकार हथियागढ़, हरियागढ़ हो गया तथा वर्तमान में हिरदागढ़ कहलाता है। एवं वर्तमान में हरियागढ़ का किला पूरी तरह ध्वस्त है। उस पहाड़ी पर किले का नामोनिशान भी नहीं है। 

किले के गेट के पत्थर थोड़े बहुत पहाड़ी पर मिलते हैं, जिससे लगता है कि यहां पत्थर का गेट था। रानी की बैठक टीला बन गई और बावड़ियों पर मक्के की खेती होने लगी। 

ठीक इसी प्रकार गोंडी गाथा में वर्णित गोंडों का ऐतिहासिक पाचालगढ़, पन्हालगढ़ हो गया,  पन्हालगढ़ से पन्नारगढ़ और पन्नारगढ़ से पनाराहेटी और पनारा हो गया।
         
वि.खं. जुन्नारदेव के ग्राम पनारा (पनारा हेटी) 6 नंबर पनारा के समीप जंगल में, 12 वीं /13 वीं शताब्दी के देवगिरि के यादव शासकों अथवा 11वीं शताब्दी के परमार राजाओं द्वारा बनवाया हुआ एक विशाल मंदिर था। जिसे पन्नारगढ़ का मंदिर कहा जाता था।

कालांतर मेंं मुस्लिम आक्रमणकारियों संभवतः अलाउद्दीन खिलजी द्वारा सन् 1296 ई. में मंदिर पूर्णतः ध्वस्त कर दिया गया। इस मंदिर के शिवलिंग की विशाल जिलेहरी व अन्य भग्न अवशेष अवलोकनीय  हैंं।
             
मंदिर की सभी मूर्तियों को लगभग 70-80 वर्ष पूर्व, डूंगरिया कोल माइंस के पूर्व मैनेजर चक्रवर्ती साहब द्वारा ट्रक में भरवा कर नागपुर भिजवा दिया गया। जिसमें राम भगवान की धनुष बाण लिए एक आदमकद मूर्ति भी थी। 

विष्णु जी की एक लगभग 3 फुट की मूर्ति जो  ग्राम डूंगरिया( जुन्नारदेव दमुआ मार्ग, जिला छिंदवाड़ा) के पास गिर गई थी, जिसे गांव वालों ने सड़क के किनारे चबूतरा बना कर रख दिया था। वर्तमान में वहां ग्रामीणों द्वारा विष्णु मंदिर बनवा कर मूर्ति स्थापित की गई है। 

जनश्रुति अनुसार ग्राम पनारा हेटी के पीछे पनारा का पहाड़ है। इस पहाड़ में, लगभग ढाई - तीन किलोमीटर की परिधि में, पहाड़ी जंगल में एक पत्थर का गेट था, जिसके नीचे से हाथी भी निकल जाता था। जो निश्चित ही पन्नारगढ़ (पन्हालगढ़ / पाचालगढ़) किले का गेट रहा होगा। 

किला ध्वस्त हो जाने के कारण इनके निशान भी नहीं मिल पाते हैं। यदि इस क्षेत्र में खोज की जाए, तो गोंडी गाथा में वर्णित 1000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन पाचालगढ़ / पन्हालगढ़ किले के अवशेष अवश्य ही मिल सकते है।
   
रास्ता - (दि.10/10/1993 में की गई यात्रा अनुसार) - छिंदवाड़ा से जुन्नारदेव,  जुन्नारदेव से 4 किलोमीटर दूर, डुंगरिया ग्राम के पास, पांच नंबर पिट (डूंगरिया माइंस) के आगे, (पश्चिम की ओर), पन्नारगढ़ (पनारा हेटी - 6 नंबर पनारा का मंदिर) विकासखंड जून्नारदेव, छिन्दवाड़ा, नाले के किनारे; भुवन या मंदिर अवशेष हैं। ग्राम पनारा हेटी व ग्राम सगुनिया के बीच में जंगल में यह मंदिर स्थल है, जहां एक बड़े चबूतरे पर मंदिर के अवशेष पड़े हैं। 

खंडहर पड़े मंदिर के चौकोर पत्थरों को लगभग 75 वर्ष पूर्व, वहां से ले जाकर ग्राम डूंगरिया में स्थित - काली मंदिर के पीछे स्थित, पानी टंकी (कोल मांंइस का ओवरहेड टैंक) का निर्माण हुआ था। पानी टंकी हेतु लगे बड़े-बड़े चौकोर पत्थरों से, मंदिर की भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। 

पानी टंकी का निर्माण भूतपूर्व सरपंच व ठेकेदार स्वर्गीय श्री चौथमल जी ठाकुर ने करवाया था। इनके ही ज्येष्ठ पुत्र स्वर्गीय श्री जगत सिंह ठाकुर, उपयंत्री, पीडब्ल्यूडी, ने बचपन में पनारा के पहाड़ में विशाल पत्थर का गेट देखा था।

यहां की गोंड़ी गीतों में, गोंंड़ी गाथाओं में, जनश्रुतियों में एवं किवदंतियों में पन्हालगढ़ व पाचालगढ़ किला अब भी जीवित है। इनके दस्तावेजी प्रमाण नहीं हैंं। परंतु इन्हें झुठलाया भी नहीं जा सकता। यह कहें कि सत्य है कि कभी पन्हालगढ़ और पाचालगढ़ क़िला था, जहां राजा जाटवा शाह के पूर्वजों का निवास था और उनका वहां राज था।

पन्नारगढ़ (पनारा) के मंदिर का निर्माणकर्ता कौन ??
995 ईसवी के पूर्व राष्ट्रकूट राजाओं का इस क्षेत्र पर आधिपत्य रहा था। नीलकंठी कला में प्राप्त शिलालेख इसका प्रमाण है। 995 ई. से 1055 ई. तक इस क्षेत्र पर परमारों का शासन रहा है। इस क्षेत्र में (जुन्नारदेव के आसपास) परमार/पवार जाति के लोगों की बस्तियां निवास नहीं करती हैं। परंतु इस क्षेत्र में यादव/गौलियों की बस्तियां अवश्य ही निवासरत हैं अर्थात देवगिरी के यादव शासकों का आधिपत्य इस क्षेत्र पर 1309 ई. तक रहा है। इनके सामंत जो गौली/यादव थे, वे इस क्षेत्र हरियागढ़ में पदस्थ रहें होंगे। 

देवगिरी के शासकों ने अपने कार्यकाल में अनेकों मंदिरों का निर्माण करवाया। जिन्हें हेमाड़पंती शैली के मंदिर कहते हैं। इन मंदिरों में विष्णु, वाराह, राम, शिव पार्वती, गणेश, देवियाँ की मूर्तियां स्थापित की। पन्नारगढ़ (पनारा) के मंदिर में विष्णु, राम, गणेश, वाराह आदि मूर्तियों का होना, निश्चित ही यह सिद्ध करता है कि यह मंदिर देवगिरि (वर्तमान दौलताबाद, महाराष्ट्र) के यादव शासकों द्वारा 12वीं अथवा 13वीं शताब्दी में बनवाया गया है।
         
इसी प्रकार का एक मंदिर अवशेष नीलकंठी कलाजिला छिंदवाड़ा में भी है। जनश्रुति है कि नीलकंठी कला गांव में बारह ज्योतिर्लिंग के मंदिर थे। वर्तमान में छह मंदिर के ध्वंसावशेष द्दष्टिगोचर होते हैं। इनमें दो मंदिरों में राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय (937ई. से 967ई.) के शिलालेख मिले हैं। 

एक अन्य मंदिर जिसे नृसिंह शिव मंदिर (दैय्यत बाबा मंदिर) कहते हैं। यहां शिव पार्वती के शीश, नृसिंह का चित्रांकन, काली जी की मुंडमाला युक्त अवशेष तथा शिवलिंग होने से निश्चित ही यह मंदिर देवगिरि के यादव शासकों द्वारा 12वीं या 13वीं शताब्दी में बनवाया गया होगा, जो वर्तमान में पूर्णतः ध्वस्त है।

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